गुरुवार, 3 सितंबर 2015

निगाहें

उन निगाहों से क्या घबराना
जो झुकती नहीं सम्मान में
जो झुकती नहीं प्यार से।

इस जहाँ में निगाहें बदनाम
भी होती हैं कत्ल के इल्ज़ाम में

निगाहें शिकारी होती हैं
शिकार भी निगाहें होती हैं।

निगाहों से निगाहें मिलाकर
निगाहों से करना तकरार
निगाहों ही निगाहों में
होती निगाहें अंगीकार।

निगाहें उठती हैं
निगाहें गिरती हैं

निगाहों से उठते हैं
निगाहों से गिरते हैं लोग

निगाहों से होता इंकार है
निगाहों से होता इकरार।

निरीह, निर्दय, निसंग होती हैं निगाहें
निर्मोह, निर्भय,निर्निमेष भी होती हैं निगाहें।

गुमशुम निस्वर निगाहें
खालिश अभिव्यक्त हैं निगाहें।
निगाहों से बनते बिगड़ते निबंध।

स्थिर भी हैं निगाहें
चंचल भी हैं निगाहें
चमत्कारी भी होती हैं निगाहें
करिश्मा करती हैं, कहर भी ढा़हती हैं निगाहें
कातर भी होती हैं निगाहें।

निगाहों में जलवा है
निगाहों से जलते हैं लोग।
निगाहों से तड़पते,मचलते हैं तन-मन।

निगाहों में आते हैं
निगाहों से ओझल होते हैं लोग।।

इतने पर भी

घनघोर गए चढ़ दिशाओं पर,
विलुप्त; सो गई दिशाएँ
घोर तिमतिमाहट में।
करता पतंग-बाजी शीतल-प्रभंजन
गया झकझोर जुल्फें।
पट उर-धरा के खोल
तरू ने है भरी आह।

पल्लव हो सवार मारूत-यान में
रहे हैं जा मिलने व्योम से
झुला है रहा वायु
वन-उपवन अपनी क्रोड़ में।
सांय-सांय करती हवाओं में
उठी है चमक चपला।
रही है चल उठापटक जलधि में
सब क्यों आज इतना गतिमान
दिया खोल दिल वारिद ने।

सूं सूं करता है आ रहा
जल वारिद
है चाहता उतरा दिल कण-कण के
अछुता ना रहे कोई
है सबको करना तरबतर
सर-सरोवर,सागर।
फड़फड़ाहट टपटपाहट की है बढ़ रही भरमार।
भीग गया हूँ मैं
गया कुद सरोवर में
बिन खोले पट ।
स्पंदित हैं आज रदपट
विचुम्बित कर झिरमिर बूँदें।

चीर हैं रहे दिल तरूओं का
झोंके तीक्ष्ण वेगमयी
किया है अतिचार
वक्ष-कलियों पर
कामनामयी है उसकी  हुंकार उठी।

हर्षा उठे अवनी अम्बर
कैसी लीला रास रचाई
खिल उठा रोम-रोम
कैसी यह
हाय! हलचल।

बाहर है कितनी सर्द
जल कितना उष्ण
तेर रहा हूँ मैं सरोवर में
गए पहुँच कुछ तट-सागर पर भी।

गाज गिरी है पत्थरों पर
पहाड़ों का दिल है गया पिंघल
बह रहे हैं निर्झर
दौड़ रही नदियाँ
कर ली है स्पर्श सागर ने सम्पूर्ण धरा आज।
वो ना कभी भीगेंगे
गए रह जो सूखे
इतने पर भी।