मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

ख्वाहिशें

कुछ ख्वाहिशें अधूरी रह गई
कुछ हो गई पूरी
इस छोटे से जीवन में
संघर्ष की तप्त दोपहर में
कच्ची कोंपल सी मुरझा गई
वो ख्वाहिशें जो अधूरी रह गई।

मासूम चेहरा तपकर तव्वा हो गया
कानों ने बंद कर दिए
ताने सुनना जमाने के
मानो बहरा हो गया
संघर्ष की पहचान अब
मेरा चेहरा हो गया।

कुछ खुशियां चली गई
कुछ लौट आई
गमों ने घर बना लिया मेरे आँगन में
उसी के साए में जीता हूँ
गमजदा ही मेरी जिंदगी की
अब पहचान हो गई।

हँसता है जमाना तो
उसकी हँसी में शरीक हो लेता हूँ
मुझे शौक नहीं रहा
चिकनी-चुपङी का
रूखी-सूखी में जी लेता हूँ
गमों को जाम समझकर पी लेता हूँ।

प्यार-मोहब्बत की बातें
पुरानी हो गई
जमाना भले ही करे बेवफाई
मुश्किलें अब मेरी दीवानी हो गई।

रविवार, 22 नवंबर 2015

समझदार कौन

कोई कहता है दुनिया को
राम ने बनाया
कोई कहता है अल्लाह ने
कोई ईसा की बनाई हुई बताता है।

दुनिया एक है तो यह कैसे संभव
या तो सबने मिलकर बनाया होगा
या राम, अल्लाह सब एक ही के नाम हैं
इन बातों को तो साधारण जन भी जानता है।

पर कुछ विद्वान मानने को तैयार ही नहीं
ऐसे विद्वानों से तो
मुझे वो रिक्शे वाला
समझदार लगता है
जो दिनभर जी तोड़ मेहनत करके
अपने परिवार को पालने और
खुद सड़क किनारे
रुखी रोटी खाकर
बदबूदार नाली के पास बिना बिस्तर
रिक्शे पर ही सोने का साहस रखता है।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

आज मुझे एतराज़ नहीं

आज मुझे एतराज़ नहीं
वृद्ध होने से
ना ही कोई भय
वृध्दावस्था आज मुझे स्वर्ग के द्वार पर स्वागत में खड़ी अप्सरा नज़र आती है।

बुढ़ापे का भी एक अपना ही मजा है
किसी कोने में बैठकर बीते जीवन का मूल्यांकन करने का
बचपन, जवानी की बातें याद करने का।

पोते-पोतियों और नातियों को
आंगन में खेलते देखना
नई पीढियों का उल्लास देखना
याद करना अपनी मौज को
अपने अतीत के अवलोकन का भी
एक अपना ही मजा है।

दर्शकदीर्घा में बैठे खिलाड़ी
सभी कर्मों से निवर्त्त
दृष्टा मात्र
दिनभर की थकान के बाद
संध्या होने पर
खेत को निहारती खुशनुमा आंखें
और घर लौटने से पहले का आराम है बुढापा।

जिसने खेत में काम नहीं किया
और संध्या हो जाए तो माथे पर
चिंता की लकीरें उभरना स्वभाविक है लेकिन जो जी-जान से काम करके
थक चुका है
उसके लिए यह संध्या
किसी वरदान से कम नहीं।

आज मुझे एतराज़ नहीं
वृद्ध होने से
ना ही कोई भय
वृध्दावस्था आज मुझे स्वर्ग के द्वार पर स्वागत में खड़ी अप्सरा नज़र आती है।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

अनदेखी

क्यों कर रहे उस रावण को कलंकित?
जो था शिव भक्त,जो था विद्वान
किए जिसने भक्ति में दस शीश कुर्बान।

किया सीताहरण घमण्ड से
तो पापमुक्त हुआ मृत्यु दंड से
आज तो हैं पापी बड़े रावण से
बिना भक्ति, बिना ज्ञान के।

फिर भी हम कितने अंधे हैं
मनाते दशहरा
जलाते पुतला रावण का
दुष्ट जान के।
कलयुग में दुष्ट पहनते हैं चोला राम का
काले करते धंधे हैं।

खून चूस गरीबों का
खेल बताते नसीबों का।

एेसा भी क्या कसूर था उस रावण का
आज तो रेप-मर्डर होते खुलेआम
खुले घूम रहे अपराधी आराम से।

कह सके ना उनको कोई कुछ
करते हैं कर्म तुच्छ से तुच्छ।

अब घूम रहे रावण अपार
कितने राम लेंगे अवतार।

क्यों कर रहे उस रावण को कलंकित
आज तो सुरक्षित नहीं
अबोध बच्ची और पड़ौसी की नारियाँ
उस रावण के घर तो पवित्र थी शत्रु की भार्या
क्यों कर रहे उस रावण को कलंकित?

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

निगाहें

उन निगाहों से क्या घबराना
जो झुकती नहीं सम्मान में
जो झुकती नहीं प्यार से।

इस जहाँ में निगाहें बदनाम
भी होती हैं कत्ल के इल्ज़ाम में

निगाहें शिकारी होती हैं
शिकार भी निगाहें होती हैं।

निगाहों से निगाहें मिलाकर
निगाहों से करना तकरार
निगाहों ही निगाहों में
होती निगाहें अंगीकार।

निगाहें उठती हैं
निगाहें गिरती हैं

निगाहों से उठते हैं
निगाहों से गिरते हैं लोग

निगाहों से होता इंकार है
निगाहों से होता इकरार।

निरीह, निर्दय, निसंग होती हैं निगाहें
निर्मोह, निर्भय,निर्निमेष भी होती हैं निगाहें।

गुमशुम निस्वर निगाहें
खालिश अभिव्यक्त हैं निगाहें।
निगाहों से बनते बिगड़ते निबंध।

स्थिर भी हैं निगाहें
चंचल भी हैं निगाहें
चमत्कारी भी होती हैं निगाहें
करिश्मा करती हैं, कहर भी ढा़हती हैं निगाहें
कातर भी होती हैं निगाहें।

निगाहों में जलवा है
निगाहों से जलते हैं लोग।
निगाहों से तड़पते,मचलते हैं तन-मन।

निगाहों में आते हैं
निगाहों से ओझल होते हैं लोग।।

इतने पर भी

घनघोर गए चढ़ दिशाओं पर,
विलुप्त; सो गई दिशाएँ
घोर तिमतिमाहट में।
करता पतंग-बाजी शीतल-प्रभंजन
गया झकझोर जुल्फें।
पट उर-धरा के खोल
तरू ने है भरी आह।

पल्लव हो सवार मारूत-यान में
रहे हैं जा मिलने व्योम से
झुला है रहा वायु
वन-उपवन अपनी क्रोड़ में।
सांय-सांय करती हवाओं में
उठी है चमक चपला।
रही है चल उठापटक जलधि में
सब क्यों आज इतना गतिमान
दिया खोल दिल वारिद ने।

सूं सूं करता है आ रहा
जल वारिद
है चाहता उतरा दिल कण-कण के
अछुता ना रहे कोई
है सबको करना तरबतर
सर-सरोवर,सागर।
फड़फड़ाहट टपटपाहट की है बढ़ रही भरमार।
भीग गया हूँ मैं
गया कुद सरोवर में
बिन खोले पट ।
स्पंदित हैं आज रदपट
विचुम्बित कर झिरमिर बूँदें।

चीर हैं रहे दिल तरूओं का
झोंके तीक्ष्ण वेगमयी
किया है अतिचार
वक्ष-कलियों पर
कामनामयी है उसकी  हुंकार उठी।

हर्षा उठे अवनी अम्बर
कैसी लीला रास रचाई
खिल उठा रोम-रोम
कैसी यह
हाय! हलचल।

बाहर है कितनी सर्द
जल कितना उष्ण
तेर रहा हूँ मैं सरोवर में
गए पहुँच कुछ तट-सागर पर भी।

गाज गिरी है पत्थरों पर
पहाड़ों का दिल है गया पिंघल
बह रहे हैं निर्झर
दौड़ रही नदियाँ
कर ली है स्पर्श सागर ने सम्पूर्ण धरा आज।
वो ना कभी भीगेंगे
गए रह जो सूखे
इतने पर भी।