गुरुवार, 24 सितंबर 2009
क्रांति
सदियों से,आदि काल से
पद-दलित हो जीते हैं
बोझ चराचर का सहते हैं
बनाई हैं कर छिनभिन हमें
जीवों ने कन्दराएँ
फोड़ सर रखी नींव
प्रसादों की मानवों ने
चीर के सीना हैं फसलें लहलाई
फ़िर भी सत्ता अपनी खाक कहलाई
सोच यह उद्वेलित हुए रज- कण
बवंडर बन झकझोरा है चराचर को
चढ़ गए आसमान
वृक्षों को है धकेला
झुक गए वो बच गए
टक्कराए वो टूट गए
फड़फड़ा उठी खिड़कियाँ प्रसादों की
गवाक्ष गई मूंद
घोट दिया गला आसमान का
बिखरा पड़ा है खून ही खून .
शनिवार, 19 सितंबर 2009
दुनिया का जीवन
कितने गूढ-जटिल
रहस्यों से अटी पड़ी है
कितना स्वार्थ-प्रपंच है
कितना सीधापन
मकड़-जाल सी जिन्दगी
चलती-चलती गूँथ जाती है
मुड़ जाती है नई दिशा में
कोटि-कोटि रंग दुनिया के
निर्भर करती है द्रष्टा के नजरिये पर
चाहत की चमक है कहीं
घ्रणा का घोर तमस छाया है कहीं
बेवफाई से टूटा मन गमगीन
कहीं उत्साह से लबालब नवजीवन
खौफ रहित ,गमहीन
शनिवार, 5 सितंबर 2009
मेरे गाँव
सूने खेतों में खेलती तलिया
रास्ते की छपाछप
और मिट्टी की वो गंध
बहुत याद आती है
धरती के झरोखों से
झांकती बाजरे की नई कोपलें
और वो मन्दिम हरियाली
सूरज ढलने पर
सिहरन ठंडी हवाओं की
बहुत याद आती है
चिलकती धूप में तपते मार्ग
कोमलता बाजरे के सिट्टों की
उमस में घुली बाजरे की वो गंध
बहुत याद आती है
गर्मी के महीनों में
गली-गली में
पसरा पड़ा सन्नाटा
खामोश झोंपड़ियों के आँगन
निर्जन खेत
और वो पेडो की छाँव में दुबके
पशु-पक्षी बहुत याद आते हैं
लू का समंदर डूबोता हुआ
गाँव-ढाणी-खेत
लहरा रहा हैं
ऐसे में सर पर मंदासी मांडे
खेत की ओर बढते वो किसान
बहुत याद आते हैं
हरशाम पक्षियों का कोलाहल
के झुंड पेड़ों पर
तालाब को घेरे भेड़-बकरियाँ बछडों की ओर दोड़ना भेंसों और गायों का वो चद्ती रात और
सबका खुले आसमान तले सो जाना -गाय की जुबाली की आवाज
भेड़ों की छींकें,ऊँटों की लुतलुती ये सब बहुत याद आते हैं
सर्दी के वो सुहाने दिन
धूप का खिलना
और सूरज का छिपना
धुंध और कोहरा
सुबह शाम सर्दी का पहरा
बहुत याद आता हैं
सरसों की लहलाती फसल और सुगों की टाँय-टाँय ताप अलावते बुडे-बुजुर्ग और गोद में छिपे बच्चे बहुत याद आते हैं
रात को ताऊ की पोली में हुक्के की आवाज लोरी सुना रही है-गुड्ड-गुड्ड सबको प्यारी नींद सुला रही है बहुत याद आ रही है .