गुरुवार, 24 सितंबर 2009

क्रांति

रज-कण हैं सोचते रोज
सदियों से,आदि काल से
पद-दलित हो जीते हैं
बोझ चराचर का सहते हैं


बनाई हैं कर छिनभिन हमें
जीवों ने कन्दराएँ
फोड़ सर रखी नींव
प्रसादों की मानवों ने
चीर के सीना हैं फसलें लहलाई
फ़िर भी सत्ता अपनी खाक कहलाई


सोच यह उद्वेलित हुए रज- कण
बवंडर बन झकझोरा है चराचर को
चढ़ गए आसमान
वृक्षों को है धकेला
झुक गए वो बच गए
टक्कराए वो टूट गए


फड़फड़ा उठी खिड़कियाँ प्रसादों की
गवाक्ष गई मूंद
घोट दिया गला आसमान का
बिखरा पड़ा है खून ही खून .

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