शनिवार, 5 सितंबर 2009

मेरे गाँव

बरसात के महीनों में
सूने खेतों में खेलती तलिया
रास्ते की छपाछप
और मिट्टी की वो गंध
बहुत याद आती है

धरती के झरोखों से
झांकती बाजरे की नई कोपलें
और वो मन्दिम हरियाली
सूरज ढलने पर
सिहरन ठंडी हवाओं की
बहुत याद आती है

चिलकती धूप में तपते मार्ग
कोमलता बाजरे के सिट्टों की
उमस में घुली बाजरे की वो गंध
बहुत याद आती है

गर्मी के महीनों में
गली-गली में
पसरा पड़ा सन्नाटा
खामोश झोंपड़ियों के आँगन
निर्जन खेत
और वो पेडो की छाँव में दुबके
पशु-पक्षी बहुत याद आते हैं

लू का समंदर डूबोता हुआ
गाँव-ढाणी-खेत
लहरा रहा हैं
ऐसे में सर पर मंदासी मांडे
खेत की ओर बढते वो किसान
बहुत याद आते हैं

हरशाम पक्षियों का कोलाहल

के झुंड पेड़ों पर
तालाब को घेरे भेड़-बकरियाँ बछडों की ओर दोड़ना भेंसों और गायों का वो चद्ती रात और
सबका खुले आसमान तले सो जाना -गाय की जुबाली की आवाज
भेड़ों की छींकें,ऊँटों की लुतलुती ये सब बहुत याद आते हैं

सर्दी के वो सुहाने दिन
धूप का खिलना
और सूरज का छिपना
धुंध और कोहरा
सुबह शाम सर्दी का पहरा
बहुत याद आता हैं

सरसों की लहलाती फसल और सुगों की टाँय-टाँय ताप अलावते बुडे-बुजुर्ग और गोद में छिपे बच्चे बहुत याद आते हैं

रात को ताऊ की पोली में हुक्के की आवाज लोरी सुना रही है-गुड्ड-गुड्ड सबको प्यारी नींद सुला रही है बहुत याद आ रही है .



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