जिन्हें सिंचा था फूल समझकर
वो कांटे निकले
थी आशा जिनसे वफ़ा की
वो बेवफा निकले
निकले तीर उनकी आस्तीन में
समझ रहे थे फूलों के गूच्छे जिनमें
कायनात काली नजर आ रही है
उम्मीद थी जहाँ किरणों की
वहाँ घनघोर निकले
प्यार हमारा उनके लिए
मासूमियत बन गया
जिनको चाहा उनके लिए
साधन बन गया
काश ! हम भी कर पाते वार
उनके दिलोदिमाग पर
तो आज निकलते न उनके पर
जिनको साया समझकर चलते थे
वो ही थे शिकारी
चले थे शिकार करने हमारा
जितना प्यार लुटाते गये हम
उतने ही वो जालिम होते गये
जितने मीठे होते गये हम
उतनी ही चींटियाँ करती रही शिकार हमारा
एक दिन सूखी गुड की भेली हो गये हम
बेसहारा ,बेबस ,बैचेन ,नीरस ,बेमोल से .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें